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संत कबीर के दोहे संग्रह - 2201 to 2269

  • अंतरजामी एक तूं, आतम के आधार।
    जो तुम छांड़ो हाथ तो, कौन उतारै पार।।२२०१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • भवसागर भारी भया, गहरा अगम अथाह।
    तुम दयाल दाया करो, तब पाऊं कछु थाह।।२२०२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सतगुरु बड़े दयाल हैं, संतन के आधार।
    भवसागर अथाह सों, खेइ उतारै पार।।२२०३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अलख इलाही एक है, नाम धराया दोय।
    कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परो मति कोय।।२२०४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम रहीमा एक है, नाम धराया दोय।
    कहै कबीर दो नाम सुनि, भरमि परौ मति कोय।।२२०५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • काशी काबा एक है, एकै राम रहीम।
    मैदा इक पकवान बहु, बैठि कबीरा जीम।।२२०६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • एक वस्‍तु के नाम बहु, लीजै वस्‍तु पहिचान।
    नाम पक्ष नहिं कीजिये, सार तत्त्‍व ले जान।।२२०७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नाम अनन्‍त जो ब्रह्म का, तिनका वार न पार।
    मन मानै सौ लीजिये, कहै कबीर बिचार।।२२०८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सब काहू का लीजिये, सांचा शब्‍द निहार।
    पक्षपात ना कीजिये, कहै कबीर बिचार।।२२०९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम कबीरा एक है, दूजा कबहु न कोय।
    अंतर टाटी कपट की, ताते दीखे दोय।।२२१०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • राम कबीरा एक है, कहन सुनन को दोय।
    दो करि सोई जानई, सतगरु मिला न हाय।।२२११।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हरि का बना स्‍वरूप सब, जेता यह आकार।
    अक्षर अर्थ यों भाषिये, कहै कबीर बिचार।।२२१२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • देखनही की बात है, कहने को कछु नाहिं।
    आदि अंत को मिलि रहा, हरिजन हरिही माहिं।।२२१३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • नगर चन तब जानिये, जब एकै राजा होय।
    याहि दुराजी राज में, सुखी न देखा कोय।।२२१४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सबै हमारे एकहैं, जो सुमिरै हरि नाम।।
    वस्‍तु लही पहिचान कै, बासन सों क्‍या काम।।२२१५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कांसे ऊपर बीजुरी, परै अचानक आय।
    तात निर्भय ठीकरा, सतगुरु दिया बताय।।२२१६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद्द छांड‍ि बेहद गया, लिया ठीकरा हाथ।
    भया भिखारी दीन का, दर्शन भया सनाथ।।२२१७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद्द छांडि बेहद गया, अबरन किया मिलान।
    दास कबीरा मिलि रहा, सो कहिये रहमान।।२२१८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बेहद बिचारौ हद तजौ, हद तजि मेलो आस।
    सबै अलिंगन मेटिकै, करौ निरन्‍तर वास।।२२१९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • निरन्‍तर बासी निरमला, शून स्‍थूल सो निनार।
    पूरब गंगा पश्चिम बहावै, पेखे बहु उजियार।।२२२०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बेहद्द अगाधी पीव है, ये सब हदके जीव।
    जे नर राते हद्दसो, ते कदी न पावै पीव।।२२२१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हदमें पीव न पाइये, बेहद में भरपूर।
    हद बेहद की गम लखै, तासौं पीव हजूर।।२२२२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद बंधा बेहद रमैं, पल पल देखै नूर।
    मनवा तहां ले राखिया, जहां बाजै अनहद तूर।।२२२३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद्द मांहि हदका घनां, लीया जीव तुराय।
    रिगसि बिगसि बेहद गया, मरै न आवै जाय।।२२२४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद छांडि बेहद गया, रहा निरन्‍तर होय।
    बेहद के मैदान में, रहा कबीरा सोय।।२२२५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद्द छाडि बेहद गया, तासों राम हजूर।
    पारब्रह्म परचा भया, अब नियरे तब दूर।।२२२६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद में बैठा कथन है, बेहद की गम नाहिं।
    बेहद की गम होयगी, तब कछु कथना काहि।।२२२७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबिरा हद के जीव सों, हित करि मुखै न बोल।
    जो राचे बेहद सों, तिनसों अन्‍तर खोल।।२२२८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हदिया सेतो हद रहो, बेहदिया बेहद।
    जो जैसा तहा रोगिया, तहा तैसी औषद।।२२२९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद में रहैं सो मानवी, बेहद रहै सो साध।
    हद बेहद दोनों तजैं, तिनका मता अगाध।।२२३०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हद बेहद दोनों तजी, अबरन किया मिलान।
    कहै कबीर ता दास पर, वारों सकल जहान।।२२३१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अगह गह अकह कहै, अनभेदा भेद लहाइ।
    अनभै बाणी आगम की, लेगई संग लगाइ।।२२३२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जहां शोक ब्‍यापै नहीं, चल हंसा उस देस।
    कहै कबीर गुरगम गहो, छांडि सकल भ्रम भेस।२२३३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अंग अठोत्तरसौ कहा, परम पुरुष उपदेश।
    कहै कबीर अब हरि मिलै, मानौं साख संदेश।।२२३४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जन कबीर बंदन करै, किस विधि कीजै सेव।
    बार पार की गम नहीं, नमो नमो निज देव।।२२३५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मांस अहारी मानवा, प्रत्‍यक्ष राक्षस जानि।
    ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।२२३६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मांस खाये ते ढेड़ सब, मद पीवै सा नीच।
    कुल की दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।२२३७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत।
    ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।२२३८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मांस मछलिया खात हैं, सुरापान सों हेत।
    ते नर नरकै जांहिंगे, ज्‍यों मूरी का खेत।।२२३९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मांस भखै औ मद पिये, धन वेश्‍या सों खाय।
    जूआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।।२२४०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मांस मांस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय।
    आंखि देखि नर खात है, ते नर नरकहिं जाय।।२२४१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • यह कूकर को भक्ष है, मनुष्‍य देह क्‍यों खाय।
    मुख में आमिख मेलिके, नरक परते जाय।।२२४२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • ब्राह्मन राजा बरन का, और पवनी छत्तीस।
    रोटी ऊपर माछली, सब बरन भये खबीस।।२२४३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कलियुग केरा ब्राह्मना, मांस मछलिया खाय।
    पांय लगे सुखमानई, राम कहे जारि जाय।।२२४४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • पापी पूजा बैठिकै, भखे मांस मद दाइ।
    तिनकी दीक्षा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होई।।२२४५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • सकल बरन एकत्र ह्व, शक्ति पजि मिलि खाहि।
    हरि दासन की भ्रांति करि, केवल जमपुर जाहिं।।२२४६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • विष्‍ठा का चौका दिया, हांडी सीझै हाड।
    छूति बचवै चास की, तिनहूं का गुरु राड।।२२४७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय।
    पाप सबै जो देखिया, पुन्‍य न देखा कोय।।२२४८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय।
    निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्‍त गया नहिं कोय।।२२४९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • हत्‍या सोही हन्‍नसी, भावै जानि बिजान।
    कर गहि चोटी तानसी, साहब के दीवान।।२२५०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • तिलभर मछली खाय के, कोटि गऊ दै दान।
    काशी करात लै मरै, तो भी नरक निदान।।२२५१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • काटि कटि जबह करै, या पाप संग का भेस।
    निश्‍च राम न जानही, कहै कबीर संदेस।।२२५२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
    जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल।।२२५३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • आठ बाट बकरी गई, सांस मुलां गये खाय।
    अजहूं खाल खटीकै, भीस्‍त कहांते जाय।।२२५४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • अंडा किन बिसमिल किया, घुन किया किन हलाल।
    मछली किन जबह करी, सब खाने का ख्‍याल।।२२५५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मुल्‍ला तझै करीम का, कब आया फरमान।
    घट फोरा घर घर किया, साहब का नीसान।।२२५६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • काजी का बेटा मुआ, उरमैं सालै पीर।
    वह साहब सबका पिता, भला न मानै बीर।।२२५७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • पीर सबन को एकसी, मूरख जानैं नाहिं।
    अपना गला कटायक, भिश्‍त बसै क्‍यों नाहिं।।२२५८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • मुरगी मुल्‍ला सों कहै, जबह करत है मोहिं।
    साहब लेखा मांगसी, संकट परिहै तोहिं।।२२५९।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबिरा काजी स्‍वाद बस, जीव हते तब दोय।
    चढ़‍ि मसीत एको कहै, क्‍यों दरगह सांचा होय।।२२६०।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • काजी मुल्‍लां भरमिया, चले दुनी के साथ।
    दिल सो दीन निवारिया, करद लई तद हाथ।।२२६१।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • काला मुंह करि करद का, दिल सूं दई निवार।
    सब सूरति सुबहान की, अहमक मुला न मार।।२२६२।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जोरी करि जबह करै, मुखसों कहै हलाल।
    साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।२२६३।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जोर कीयां जुलूम है, मागै ज्‍वाब खदाय।
    खलिक दर खूनी खड़ा, मार मुही मुंह खाय।।२२६४।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबिरा साई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
    जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बपीर।।२२६५।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कमोदनीं जलहरि बसै, चंदा बसे अकासि।
    जो जाही का भावता, सो ताही कै पास।।२२६६।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • कबीर गुर बसै बनारसी, सिष समंदां तीर।
    बिसारया नहीं बीसरै, जै गुंण होई सरीर।।२२६७।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • जो है जाका भावता, जदि तदि म‍िलसी आइ।
    जाकौं तन मन सौंपिया, सो कबहूं छाड़ी न जाइ।।२२६८।।

    — संत कबीर दास साहेब


  • स्‍वामी सेवक एक मत, मन ही मैं म‍िलि जाइ।
    चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन कै भाइ।।२२६९।।

    — संत कबीर दास साहेब